Monday, May 28, 2018

कविता-कश्ती

घासम-घास है, ख़ासम-ख़ास है,
इसे न तोड़ो, ये पंक्ति उदास है:

घास है कितनी ख़ास
घास है कितनी ख़ास
वाह! वाह! वाह!
रौंदे जाने पर भी देती है
मखमली अहसास
हाँ!
घास है कितनी ख़ास
इसी घास को खाता है अश्व
और दौड़ता है अश्वमेध यज्ञ में
ताकि राम रख सकें
अखण्ड राजदंड अपने पास
हाँ!
घास है कितनी ख़ास
इसी घास को खाती है गौ
जिसका दूध पी कान्हा
रचते हैं गोपियों संग रास
हाँ!
घास है कितनी ख़ास
इसी घास पर लेट नव-युगल
देखते हैं सफ़ेद बादलों को और
रचते हैं हैं क्षणभंगुर प्रेम का
अमर इतिहास
हाँ!
घास है कितनी ख़ास
इसी घास पर गिरती है ओस
और सूरज को ले आती है
कितना निकट, कितना पास
हाँ!
घास है कितनी ख़ास
इसी घास पर पैर रख कोई
मसीहा आरूढ़ होता है धर्म पर
और दे जाता है पैग़म्बरी सम्भाष
हाँ!
घास है कितनी ख़ास
इसी घास में जीवन जीवंत हो
जब सुगबुगाता है तो पंछी
उड़ते हैं और उनके पीछे होता है
प्रचण्ड आकाश
हाँ!
घास है बहुत ख़ास
इसी घास में मेधा है, छल है,
कपट है, दूध है, पानी है,
रवानी है, कोई कहानी है जो
बुनती है रेशे-रेशे का पाश
हाँ!
घास है बहुत ख़ास
इसी घास में वायु, अग्नि, जल,
समीर, आकाश हो जाते हैं
पंचभूत और मिल जाती जीवन को
जीने की नैसर्गिक तलाश
हाँ!
घास है एकदम ख़ास
इसी घास की गोद में प्रलय है
पलता, साँस है पलती, यौवन है
बिखरता, बिजली है गिरती
और कभी-कभी तो कुछ हो न हो
घास ही रह जाती है करती हास
हाँ!
इसी घास को खाती है बकरी
जिसकी क़ुर्बानी दे-दे अल्लाह के
अल्लाह के पैग़ाम का उड़ाते हैं
बेइंतहा उपहास
हाँ!
घास है कितनी ख़ास
इसी घास को उखाड़ कर होता है
यज्ञ जिसकी अग्नि में पड़ता है
अर्घ्य और उठती धूम्र-पंक्ति कोई
जोगी जोग का करता है ह्रास

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