भूमिका के संग एक कविता:
आज का मेरा निज ब्रम्ह-भाव
आप सब सुधिजन को अर्पित:
कविता का शीर्षक:
ब्रम्हंजलि
जब कवि हृदय से सत्य की
अविरल धार बहती है
हिमालय झुक कर एक अंजुलि
भावों के जल को पीने को
व्याकुल हो उठता है,
गंगा का निर्मल नीर और भी
अमृत हो जाता है
सागर के गहरे अन्तःस्थल में
सूर्य प्रकाश नहीं पहुँच सकता है
पर हृदय की सोई चेतना की
गहराई में कवि कमल नयन
उतर कर सोई तममय चेतना
को फिर जागृत कर जाते हैं
कमल के पुष्प खिला जाते हैं
और एक कहावत जन्म लेती है
कि "जहाँ न पहुंचे रवि
वहां पहुंचे कवि"
अम्बर के सूने आँचल पर
रंगों-किरणों-अक्षरों के अमर
आकार उभर आते हैं
बादल उमड़-घुमड़ कवि-हृदय-नीर
भर बरसने को व्याकुल
हो जाते हैं, धरती को जल से
निर्मल तृप्त बना जाते हैं
खोए उजड़े वन के वन फिर से
हरे-भरे हो जाते हैं
देवी-देव, ऋषि-गुरु-गण
आशीर्वचनों से ओत-प्रोत हो
नयनों से अश्रु-नीर उड़ेल जाते हैं,
कामिनी-कांचन का अमर पाश,
ब्रम्ह की ओझल-बोझल माया
ढीली पड़ जाती है
अखिल सृष्टि-ब्रम्हाण्ड-जगत
फिर जीवन-ऋत को मान
सहज प्राकृतिक हो उठता है
छंदों-स्वरों-सुर-लय-ताल
कण-कण में अंकुरित होता है
रेतीले मरुस्थल एक बूँद भाव
की पी कर अमर वर देते हैं
स्वप्न-जागृति का चेतन खेल
और भी विनोदमय हो जाता है
हृदय-हृदय के सोए अरमान
पूर्ण हो वरदान सदृश लगते हैं,
प्रेम पाश में अवनि-अम्बर
ऐसा बँध जाता है कि वह
मानवीय प्रेम का सुघड़ आदर्श
बन जाता है, मर्त्यों को अमर
बना जाता है, स्वर्ग को धरती पर
लाता है, अप्सराएं जन्म ले कन्या
बनती हैं, देव मानव शरीर को
मचलते हैं, एक कवि हृदय की
अमृत-धार वेद-गीता-बाइबल-
क़ुरान-गुरुग्रंथ साहब की
अखण्ड ज्योत बन जाती है,
बुद्ध-महावीर, राम-कृष्ण,
ईसा-मसीह-करुणाकर को
पुनः पुनः जन्म लेने का
सहज कारण बन जाती है,
ज्ञान-विज्ञान-कला-विद्या को
एक सूत्र में रख कर
संसार को सारमय कर जाती है.
कोटि-कोटि प्रणाम कवि और
उसकी भावांजलि को. 😛
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